श्री राधा वल्लभ मन्दिर – इतिहास

राधा वल्लभ मन्दिर मथुरा शहर के वृन्दावन धाम में ठा. श्री बांके बिहारी जी मन्दिर के निकट स्थित है। श्री राधा वल्लभ जी की कथाऐं पुराणों में भी वर्णित हैं। कहा जाता है कि ठा श्री राधा बल्लभ जी श्रीराधा कृष्ण का मिश्रित स्वरूप है। यह मन्दिर वृन्दावन के प्राचीन मन्दिरों में से एक है क्योंकि राधा वल्लभ मन्दिर वृन्दावन के 7 ठाकुरों में से एक है। हमारे ठा. श्री राधा वल्लभ लाल अपने नेत्रों को लेकर बहुत अधिक प्रचलित है, क्योंकि ठा. श्री राधा वल्लभ अपने नेत्रों में करूणा भरने के कारण श्यामल रंग के नेत्र लिए हुए है।

श्री राधा वल्लभ मन्दिर जिसे ग्रंथों में हित मन्दिर भी कहा गया है। जिसका निर्माण सुन्दरदास भटनागर द्वारा कराया गया था। सुन्दरदास भटनागर, महाप्रभु हित हरिवंश जी के ज्येष्ठ पुत्र वनचन्द्र गोस्वामी के शिष्य थे। वनचन्द्र गोस्वामी जी को महाप्रभु हित हरिवंश जी के बाद ठा. श्री राधा वल्लभ जी की सेवा का अधिकार प्राप्त हुआ। उन्हीं के शिष्य सुन्दरदास भटनागर अकबर के दरवार के प्रमुख खानखाना अब्दुल रहीम के अधीन थे।

 

मन्दिर का निर्माण

सुन्दरदास भटनागर द्वारा श्री राधा वल्लभ मन्दिर का निर्माण कराया गया। सुन्दरदास भटनागर जी के खान खाना अब्दुल रहीम के अधीन होने के कारण सुन्दरदास जी को मन्दिर बनवाने की अनुमति मिली व उसके साथ ही शाही लाल बलुआ पत्थर को मन्दिर के निर्माण कार्य में इस्तेमाल करने की शाही अनुमति मिली। वो लाल बलुआ पत्थर जिसे उस समय सिर्फ शाही महलों, शाही इमारतों व शाही किलों के निर्माण में उपयोग किया जाता था। इस मन्दिर के निर्माण के लिए अकबर द्वारा पत्थर को उपयोग करने की अनुमति मिली, उसके साथ ही अकबर द्वारा मन्दिर निर्माण के लिए आर्थिक मद्द भी की गयी। तो उसके बाद मन्दिर सन 1584 में बनकर तैयार हुआ।

 

राजा मान सिंह द्वारा प्रथम निर्णय

पूर्व में मन्दिर का निर्माण सुन्दरदास भटनागर द्वारा कराया गया था, इसका साक्ष्य आज भी है। सुन्दरदास भटनागर जी के वंशजों के पास आज भी इस मन्दिर के दस्तावेज मौजूद है, जिससे साबित होता है कि मन्दिर का जीर्णोद्धार सुन्दरदास जी द्वारा कराया गया। ऐसा माना जाता है कि राजा मान सिंह के द्वारा भी इस मन्दिर को सर्वप्रथम बनवाने का निर्णय लिया गया था, पर एक किंवदंती के अनुसार वह पीछे हट गये।

 

किंवदंती के अनुसार

 वैसे उस किंवदंती का वर्णन ग्रन्थों में कहा गया है कि जिस भी व्यक्ति द्वारा इस मन्दिर का निर्माण कराया जायेगा, उस व्यक्ति की एक ही वर्ष के अन्दर मृत्यु हो जायेगी। सुन्दरदास जी द्वारा जिस मन्दिर का निर्माण कराया गया, उसकी दीवारें ऐसा कहा जाता है कि वह किंवदंती मन्दिर बनने पर सच भी हुई, क्योंकि सुन्दरदास भटनागर जिन्होंने मन्दिर का निर्माण कराया उनकी मृत्यु मन्दिर निर्माण के एक वर्ष के अन्दर हो गई थी। ग्रंथो से पता चलता है कि मन्दिर के निर्माण के तुरन्त बाद ही उनकी मृत्यु हुई।

 

मन्दिर की वास्तुकला

अगर हम मन्दिर की वास्तुकला की बात करें, जब सुन्दरदास भटनागर जी द्वारा पूर्व में मन्दिर बनवाया गया था। तब मन्दिर की दीवारें 10 फीट चैड़ी और 2 चरण में छिदी हुई है। जब बादशाह अकबर द्वारा मन्दिर बनाने की अनुमति दी गयी थी, तब बादशाह अकबर के द्वारा वृन्दावन के प्राचीन 7 मन्दिरों के लिए उनकी विशेषता के अनुसार भूमि दान में दी गयी थी। जिसमें 120 बीघा जमीन सिर्फ ठा. राधा वल्लभ जी के हिस्से आयी। तब से राधा वल्लभ सम्प्रदाय के लोगों का यह मुख्य केन्द्र बन गया है।

 

मन्दिर का पुनः निर्माण

जब मन्दिर का निर्माण सन 1584 में पूर्ण हुआ, तब ठा. राधा वल्लभ जी की स्थापना इस मन्दिर में की गई। उसके बाद लगभग 90 वर्षो तक ठा. राधा वल्लभ यहाँ विराजमान रहे और भक्तों को दर्शन देते रहे। लकिन जब पूर्व में औरंगजेब द्वारा वृन्दावन के प्रमुख 7 मन्दिरों पर आक्रमण किये जाने पर मन्दिर पूर्णतः क्षतिग्रस्त हो गया। जिसके बाद ठा. राधा वल्लभ जी के विग्रह की सुरक्षा को लेकर उन्हें राजस्थान जिले के भरतपुर शहर में कामां नामक स्थान पर एक मन्दिर में स्थापित किया गया। जहाँ से उन्हें 123 वर्ष पश्चात पुन वापस लाया गया और नये निर्मित मन्दिर में सन 1842 में स्थापित किया गया।

 

लूटमार आतंक से आजादी

जब हित हरिवंश जी वृन्दावन आये उस समय वृन्दावन एक सघन वन हुआ करता था। उस समय में वृन्दावन में लूटमार का आतंक था और उन लुटेरों के सरदार का नाम नरवाहन था। जब नरवाहन ने महाप्रभु जी के बारे में सुना, तो वह उनसे मिलने यूुना किनारे ऊँची ठोर पर पहुँचा। उनसे मिलने पर वह पहली नजर में ही उन्हें समर्पित हो गया। तब महाप्रभु हरिवंश जी ने उन्हें कहा कि तुम यह चोरी का मार्ग छोड़ दो और नरवाहन ने तुरंत ही उनकी यह बात मान लूटमार करना छोड़ दिया। तभी से सभी संतो का डर खत्म हुआ और वह वृन्दावन में आकर रहने लगे।

 

‘‘गादी‘‘ सेवा पद्धति

जब हरिवंश जी श्रीराधा वल्लभ लाल को लेकर वृन्दावन में आकर रहने लगे तो उनके आने के एक वर्ष पश्चात वि.स. 1591 में कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी को उन्होंने ठा. श्री राधा वल्लभ लाल का बड़ी धूम-धाम से पाटोत्सव कर विधिवत् प्रतिष्ठित किया। जिसमें उन्होने राधा वल्लभ जी के साथ उनके वाम भाग में गादी सेवा की पद्धति का संचालन किया। हित हरिवंश जी ने राधा जी को अपना गुरू माना है इसलिए प्राचीन भारतीय धर्म संस्कृति के अनुसार गुरू गादी स्थापित करने की परम्परा है। यहीं कारण है कि महाप्रभु हित हरिवंश जी ने गादी प्रथा का चलन प्रारम्भ किया।

 

महाप्रभु हित हरिवंश जी कि जाने के बाद जब उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री वनचन्द्र गोस्वामी को उनकी जगह दी गयी, तब वनचन्द्र जी का सेवाकाल लगभग 55 वर्षो तक रहा। उसके बाद वनचन्द्र जी के ज्येष्ठ बेटे सुन्दरवर गोस्वामी जी को सेवा प्राप्त हुई। सुन्दरवर जी के बाद उनके पुत्र दामोदर गोस्वामी जी को सेवा प्राप्त हुई। दामोदर जी के दो पुत्र हुए रासदास जी और विलासदास जी। दामोदर जी के बाद उनके दोनों पुत्रो और उनके पुत्रों के वंशजो द्वारा मन्दिर की सेवा की जाने लगी। जिसमें रासदास जी के वंशज रासवंश और विलासदास जी के वंशज विलासवंश कहलाये। बस तभी से ठा. श्री राधा वल्लभ लाल की सेवा दोनों वंशजो द्वारा 6-6 महीनें के लिए की जाने लगी।

 

मन्दिर में ‘‘7 आरती 5 भोग सेवा परम्परा‘‘ क्यों प्रसिद्ध है?

हम आपको बता दें कि गोस्वामी श्री हित हरिवंश जी श्रीराधा रानी के परम भक्त थे, जिन्होंने कलयुग में भगवान श्रीकृष्ण की बंसी के रूप में अवतार लिया था। स्वामी हित जी का मानना था, कि ‘‘अगर आपको भगवान श्रीकृष्ण को पाना है और उनकी भक्ति का आंनद प्राप्त करना है, तो आप सभी को श्रीराधा की उपासना करनी चाहिए। क्योंकि कहा गया है कि श्रीराधा की प्रसन्नता और उपासना से ही श्रीकृष्ण की भक्ति को पाया जा सकता है।‘‘ जब हरिवंश जी को राधा जी के दुर्लभ दर्शन हुए, तो राधा जी द्वारा स्वामी जी को एक पान भेंट स्वरूप दिया गया। अतः यही कारण है, कि श्री राधा वल्लभ मन्दिर में एकादशी के दिन पान वर्जित नहीं है।

 

अर्थात जिस प्रकार स्वामी जी द्वारा श्रीराधा जी की सखी भाव से सेवा पूजा की गयी। आज वर्तमान में श्रीराधा वल्लभ मन्दिर में इसी सखी भाव से सेवा की जाती है, जिसे भक्तों द्वारा इन सभी सेवाओं को भलिभाति देखा जा सकता है। गोस्वामियों द्वारा की जाने वाली ‘श्रीराधा वल्लभ मन्दिर की सेवाओं‘ को ‘‘नित्य सेवा‘‘ कहा जाता है, जिसमें ‘‘अष्ट आयाम सेवा‘‘ का विधान है। ‘‘अष्ट आयाम‘‘ का अर्थ- प्रत्येक दिन के आठ प्रहर से है। प्रत्येक दिन के आठ प्रहर में प्रत्येक, 1 प्रहर – 3 घण्टे का, तो 8 प्रहर – 24 घण्टे के। इस प्रकार प्रत्येक दिन की आठ सेवाऐं निम्न हैं-

 

1. मंगला आरती
2. हरिवंश मंगला आरती
3. धूप श्रृंगार आरती
4. श्रृंगार आरती
5. राजभोग आरती
6. धूप संध्या आरती
7. संध्या आरती
8. शयन आरती

 

आपको बता दें कि मन्दिर की इन्हीं ‘‘अष्ट आयाम सेवाओं‘‘ के अन्तगर्त ही ‘‘5 आरती एवं 7 भोग सेवा पद्धति‘‘ का चलन है। हरिवंश जी के वंशजों द्वारा इस पद्धति को बखूबी निभाया जा रहा हैं। इसके साथ ही वृंदावन के सम्पूर्ण मन्दिरों में से यह एकतात्र ऐसा मन्दिर है, जहाँ प्रत्येक रात्रि में अति सुन्दर मधुर समाज द्वारा गान की परम्परा शुरूआती दिनों से ही चली आ रही है।

 

मन्दिर उत्सव

यदि आप ठा. श्री राधा वल्लभ मन्दिर आने का सोच रहे हैं, तो यह जानकारी आपके बहुत काम आने वाली है। इसमें हम आपको श्री राधा वल्लभ मन्दिर के उत्सवों के बारे में सम्पूर्ण जानकारी देने का प्रयास करेंगे।

 

ठा. श्री राधा वल्लभ मन्दिर में हर त्योहार को बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है, क्योंकि इस मन्दिर में उत्सव मनाने का गोस्वामियों का अपना अलग ही तरीका है। राधा वल्लभ मन्दिर अपने मनाये जाने वाले त्योहारों के लिए प्रसिद्ध हैै। जिनमें मन्दिर के प्रमुख त्योहार निम्न है-

 

हितोत्सव – इस उत्सव को महाप्रभु हित हरिवंश जी की याद में मनाया जाता है। हित हरिवंश जी राधा वल्लभ पद्धति के संस्थापक है और उनकी याद में 11 दिनों तक यह उत्सव मनाया जाता है।

 

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी – जैसा नाम से भी स्पष्ट है कि यह उत्सव भगवान श्रीकृष्ण की याद में उनके जन्म के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। जो कृष्ण जन्माष्टमी से 6 दिन तक चलता है। जिस उत्सव की समाप्ति श्रीकृष्ण की छट पूजा के बाद होती है।

 

श्रीराधा अष्टमी – राधा रानी जिन्हें श्रीकृष्ण की पत्नि भी कहा जाता है और उन्हें श्री लाडली जी के नाम से भी पुकारा जाता है। राधा जी के जन्म का भव्य उत्सव 9 दिनों तक मनाया जाता है। जिसमें राधा वल्लभ सम्प्रदाय की गुरू श्रीराधा रानी के जन्म के रूप में मनाते है।

 

प्राकट्य महोत्सव – कथाओं में वर्णित है कि वि.स. 1590 को महाप्रभु हित हरिवंश जी का जिस दिन वृन्दावन आगमन हुआ, उस दिन को कार्तिक माह की शुक्ल त्रियोदशी अनुमानित किया गया है। ऐसा माना जाता है कि महाप्रभु हरिवंश जी के वृन्दावन आने की तिथि और समय को सुनिश्चित नहीं किया जा सका, इसलिए अनेक तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की त्रियोदशी निश्चित की गयी।

व्याहुला उत्सव – इस त्योहार को श्रीराधा वल्लभ मन्दिर में बड़े ही उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस त्योहार में मन्दिर के सभी लोग और भक्तजन मिलकर श्रीराधा कृष्ण के विवाह का समारोह मनाते है। व्याहुला उत्सव में श्रीकृष्ण को दुल्हे की तरह सेहरा पहनाया जाता है और श्रीराधा जी को दुल्हन की तरह सजाया जाता है और फिर बाद में पूर्ण रूप से पारंपरिक तरीके से इनके विवाह का समारोह मनाया जाता है। इस समारोह में मन्दिर परिसर पूर्ण रूप से भक्तों से भर जाता है। मन्दिर में मनाये जाने वाले विशेष उत्सवों में से एक ‘‘व्याहुला उत्सव‘‘ है।

 व्याहुला उत्सव
व्याहुला उत्सव

 

खिचड़ी उत्सव – वृंदावन की ठिठुरन वाली अर्थात कड़ाके की ठंड के समय महीने भर या उससे अधिक चलने वाले इस उत्सव को ‘खिचड़ी उत्सव‘ के नाम से जाना जाता है। इस उत्सव के दौरान गोस्वामियों द्वारा खिचड़ी को तैयार किया जाता है, जिसके लिए एक किंवदंती प्रचलित है – ‘खिचड़ी, घी की निचुरी‘। इसके अलावा इस उत्सव में खिचड़ी के साथ साथ एक स्वादिष्ट व्यंजन का भी वितरण किया जाता है, जिसे ‘अदरख कूचा‘ नाम दिया गया है और साथ ही इसे सभी लोगों से पूर्ण रूप से गुप्त रखा गया है। यह अदरख कूचा नामक व्यंजन त्यौहार के दौरान कुछ की भाग्यशाली लोगों में प्रसाद के रूप में उपलब्ध हो पाता है।

 

खिचड़ी उत्सव
खिचड़ी उत्सव

 

पाटोत्सव उत्सव – राधा वल्लभ मन्दिर में पाटोत्सव का त्योहार भी बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है, इस उत्सव में महाप्रभु हित हरिवंश जी द्वारा ठा. श्रीराधा वल्लभ लाल जी के विग्रह की वैदिक मंत्रोच्चार के द्वारा पहली बार सिंहासन पर विराजमान कर उनकी प्राणप्रतिष्ठा की गयी थी। इसी उपलक्ष्य में श्रीराधा वल्लभ मन्दिर में पाटोत्सव का उत्सव बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है।

 

अन्य त्योहार – राधा वल्लभ मन्दिर परिसर में और सभी त्योहार भी बड़ी उत्साह के साथ मनाये जाते है, जिसमें होली, दीपावली, शरद पूर्णिमा, दशहरा, झूलन उत्सव आदि है।

।। बोलो श्री राधा वल्लभ लाल की जय ।।

 

मन्दिर आरती और दर्शन समय

ग्रीष्मकाल

मंगला आरती प्रातः काल – सुबह 5ः00 बजे
दर्शन प्रातः काल – प्रातः 6ः30 बजे – दोपहर 1ः30 बजे
दर्शन संध्या काल – संध्या 5ः00 बजे – रात्रि 9ः30 बजे
संध्या आरती शाम – 6ः30 – 7ः30 बजे संध्या में

 

शीतकाल

मंगला आरती प्रातः काल – सुबह 5ः30 बजे
दर्शन प्रातः काल – प्रातः 7ः00 बजे – दोपहर 1ः00 बजे
दर्शन संध्या काल – संध्या 5ः00 बजे – रात्रि 8ः30 बजे
संध्या आरती शाम – 6ः30 – 7ः00 बजे संध्या में

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *

hi_INहिन्दी