ठाकुर बांके बिहारी मन्दिर कई लोककथाओं, किंवदंतियों और मिथकों पर आधारित है, जिसके पूर्णत साक्षय नहीं है, पर वह लोगो की लोककथाओं में शामिल मिलती हैै। जो पूर्व में घटित हो चुकी है और जिसके बारे मे हम आपको बताने जा रहे है।
राजकुमारी और बांके बिहारी
बांके बिहारी मन्दिर की सबसे पुरानी लोक कथाओं में से एक है कि ब्रज की भूमि पर लम्बे समय तक शासन करने वाले राज्यों में से एक राजस्थान की राजकुमारी का जब वृन्दावन में बिहारी जी की पूजा करने के उद्देश्य से आना हुआ तो, जैसे ही राजकुमारी की नजर बिहारी जी के त्रिभंग विग्रह पर पड़ी वह बिहारी जी के प्रेम मे पूर्णत खो गयी और उसने वहीं पर रहने का विचार किया। परन्तु एक राजकुमारी की अपनी एक सीमा और कर्तव्य होते है, जिन्हें निभाने के लिए उसने अपने आप को वृन्दावन व बिहारी जी से दूर कर लिया और पुनः अपने राज्य वापस आ गई। जिसके बाद उन्होंने फिर कभी भी वृन्दावन जाने का नहीं सोचा और अपने मन की बिहारी जी को लेकर सभी भावनाओं को अपने मन में हमेशा के लिए रख लिया।
राजकुमारी के ऐसा करने से किसी को भी पता न चला कि कब बिहारी जी उसके यहाँ पर मन्दिर परिसर को छोड़ कर चले गये थे। कुछ समय बाद जब मन्दिर के पुजारी को पता चला कि मन्दिर में बांके बिहारी की मूर्ति नहीं है। गोस्वामियों ने मूर्ति की खोज शुरू कर दी, जब तक कि उन्हें पता न चल गया कि मूर्ति राजकुमारी के पास सुरक्षित है और उनके द्वारा श्री बिहारी जी की पूजा की जा रही है। इस घटना से मन्दिर के गोस्वामियों को यह ज्ञात हुआ कि ठा. बांके बिहारी अपने भक्तों की भक्ति के वशीभूत हो उनके साथ भी जा सकते है।
वृद्ध पति पत्नि का जोड़ा
एक बार एक पत्नी ने अपने पति को बड़ी मिन्नतों के बाद वृन्दावन जाने के लिए मना लिया। जिसके बाद दोनों वृन्दावन आकर बांके बिहारी मन्दिर के दर्शन करने के लिए गये। वह दम्पति वहाँ जाकर श्री बांके बिहारी जी के दर्शन करते और कुछ समय के लिए मन्दिर परिसर में श्री बिहारी जी के सामने बैठ जाते। ऐसा करते करते बहुत दिन हुए उसके बाद एक दिन पति ने अपनी पत्नी से पुनः घर लौटने की बात कही। जिस पर पत्नी ने कहा कि अगर मैं घर जाती हूँ, तो मुझे ठा. श्री बांके बिहारी जी के दर्शन से वंचित होना पड़ेगा।
यह कहकर वो रोने लगी और रोते रोते ठा. श्री बिहारी जी से प्रार्थना करने लगी कि- ‘‘हे प्रभु मैं वापस अपने घर जा रही हूँ, पर आप हमेशा के लिए मेरे साथ मेरे पास ही रहना‘‘ इतना कहकर वह दम्पति वापस अपने घर जाने के लिए रेलवे स्टेशन पहुँचने को घोड़ागाड़ी में बैठकर जाने लगे। तब ठा. श्री बांके बिहारी जी एक गोप का रूप धारण कर घोड़ागाड़ी के पीछे दौड़ने लगे और उस दम्पति को कहने लगे कि मैया मुझे भी अपने साथ ले चलिए। इस पर दम्पति ने गोप से कहा कि हम तुम्हें नहीं जानते, तुम वापस अपने घर लौट जाओ।
तब वह गोप दम्पति से बहुत विन्रम विनती करने लगे। इसके कुछ समय बाद जब मन्दिर के पुजारियों ने मन्दिर परिसर के पट खोले, तब उन्हें पता चला कि मन्दिर परिसर से श्री बांके बिहारी जी जा चुके है। बांके बिहारी जी के मन्दिर में न रहने से पुजारिगण सब स्थित को जान गये और उनका ध्यान उस दम्पति की साधना पर गया। जब पुजारियों ने लोगों से उस दम्पति के बारे में पूँछा, तो उन्हें पता चला कि वह दम्पति तो पुनः अपने घर जाने के लिए रेलवे स्टेशन को निकल चुके है।
जैसे ही पुजारियों को यह पता चला, तो वह तुरन्त ही उस दम्पति के पीछे दौड़े। तब पुजारियों ने उस दम्पति की घोड़ागाड़ी को देखा, तो उसमें गोप स्वरूप ठा. श्री बांके बिहारी जी बैठे थे। तब सेवायत पुजारियों द्वारा दम्पति से विनती की गयी कि आप इन्हें हमारे साथ भेज दें। तब उनके बीच वार्तालाप देख, उनके मध्य से गायब हो गये। उसके बाद जब पुजारियों द्वारा मन्दिर के पट खोले गये, तब उन्होंने बिहारी जी को पुनः उनके स्थान पर देख उनके दर्शन करे।
इस वाक्य को देख दम्पति जोड़े ने बांके बिहारी जी की स्वयं कृपा देख संसार के मोह का पूर्णतः त्याग कर दिया और ठा. श्री बांके बिहारी जी के चरणों में अपने जीवन को पूर्णतः समर्पित कर दिया। ऐसे ही अनेको कारणों से ठा. श्री बांके बिहारी जी की झाँकी प्रथा अर्थात पर्दा प्रथा के दर्शन होते है।
बिहारी जी की गवाही
पुराणोें मे वर्णित है कि ठा. श्री बांके बिहारी जी एक विग्रह के स्वरूप में मन्दिर में विराजमान है। लेकिन वह अपने भक्तों की पुकार जरूर सुनते है। किंवदंतियों के अनुसार ऐसी ही एक पुकार ठा. बांके बिहारी जी ने अपने उड़ीसा के भक्त की सुनी थी। कहानी कुछ इस प्रकार है, कि उड़ीसा के एक गाँव साखी गोपाल से दो ब्राहमण चार धाम की यात्रा के लिए वृन्दावन आये। उन ब्राहमणों में एक वृद्ध व्यक्ति व एक नवयुवक था। यात्रा करते में वृद्ध की तबीयत खराब होने पर जब उस नवयुवक ने उनकी अच्छे से देखभाल की। जिस पर वह वृद्ध खुश हो उस युवक से अपनी बेटी की शादी करवाने की बात कहता है और यह सब वार्तालाप बांके बिहारी जी के सामने हो रहा था।
जब वह दोनों अपनी यात्रा पूर्ण कर वापस गाँव पहुँचे, तो वह वृद्ध व्यक्ति अपनी बात से मुकर गया। इस पर नवयुवक व्यक्ति ने बात सरपंच को कही, सरपंच के सब बात जानने पर जब सरपंच ने वृद्ध व्यक्ति को बात पुँछने के लिए बुलाया। तो वह मुकर गया और उस नवयुवक से कहा कि अगर तुम्हारें पास इस बात का कोई साक्ष्य है, तो उसे सबके समक्ष प्रस्तुत करो। नवयुवक वृद्ध के कहने पर जब साक्ष्य लेने के लिए श्री वृन्दावन धाम आ पहुँचा, तो वह बांके बिहारी मन्दिर में गया और बांके बिहारी जी को अपने साथ चलने के लिए कहने लगा। इस पर बिहारी जी बोले कि मैं कैसे तुम्हारें साथ चल सकता हूँ, मैं तो एक विग्रह मात्र हूँ। युवक ने कहा कि जब आप बात कर सकते है, तो साथ भी चल सकते हैं।
पीछे मुड़कर न देखना
जब युवक ने बांके बिहारी जी से साथ चलने को कहा, तो बिहारी जी ने युवक के आगे एक शर्त रखी। बिहारी जी की शर्त थी कि मैं साथ चलुँगा, पर तुम कहीं पर भी रास्तें मे पीछे मुड़कर नहीं देखोगे। तुमने रास्ते में जहाँ भी पीछे पलटकर देखा तो मैं उसी स्थान पर एक विग्रह रूप धारण कर लूँगा। युवक बिहारी जी की बात मान उन्हें अपने साथ ले गया। बहुत दूर चलने के बाद लगभग उड़ीसा गाँव आ ही चुका था, जब युवक को बिहारी जी के पैरों की आवाज नहीं आयी और उसने पीछे मुड़कर देख लिया।
पुनः विग्रह रूप धारण
युवक के पीछे मुड़कर देखने पर बिहारी जी अपनी शर्त के अनुसार पुनः विग्रह स्वरूप में आ गये, तब युवक थोड़ा चिन्तित हुआ और सभी गाँव वालो को बुला कर वहाँ ले गया। जिसे देख सभी लोग दंग रह गये और उस युवक की बात पर यकीन कर लिया कि जिस युवक के लिए खुद भगवान साक्षी बनकर आ सकते भला वो युवक कैसे झूठ कैसे बोल सकता है। इस सब साक्ष्य के बाद उस वृद्ध ने अपनी बेटी की शादी उस नवयुवक से कर दी और जहाँ पर बिहारी जी विग्रह रूप में ठहरे उस स्थान पर ‘साक्षी गोपाल‘ के नाम से एक मन्दिर का निर्माण करा उस युवक को वहाँ का सेवायत घोषित किया। यही है ठाकुर जी की अपने भक्त के प्रति दया।
‘‘बोलो श्री बांके बिहारी लाल की जय‘‘
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