राधा वल्लभ मन्दिर मथुरा शहर के वृन्दावन धाम में ठा. श्री बांके बिहारी जी मन्दिर के निकट स्थित है। श्री राधा वल्लभ जी की कथाऐं पुराणों में भी वर्णित हैं। कहा जाता है कि ठा श्री राधा बल्लभ जी श्रीराधा कृष्ण का मिश्रित स्वरूप है। यह मन्दिर वृन्दावन के प्राचीन मन्दिरों में से एक है क्योंकि राधा वल्लभ मन्दिर वृन्दावन के 7 ठाकुरों में से एक है। हमारे ठा. श्री राधा वल्लभ लाल अपने नेत्रों को लेकर बहुत अधिक प्रचलित है, क्योंकि ठा. श्री राधा वल्लभ अपने नेत्रों में करूणा भरने के कारण श्यामल रंग के नेत्र लिए हुए है।
श्री हित हरिवंश चंद्र महाप्रभु जी का परिचय
पौराणिक कथाओं में वर्णित है कि ठा. राधा वल्लभ जी की बंसी, श्री हित हरिवंश महाप्रभु जी के रूप में धरती पर देवबन्द नामक स्थान पर अवतरित हुई थी। अर्थात हरिवंश महाप्रभु जी ठाकुर जी की बंसी के रूप में धरती पर उत्पन्न हुए। गोस्वामी श्री हित हरिवंश चन्द्र महाप्रभु जी 16वीं शताब्दी तक राधा वल्लभीय सम्प्रदायाचार्य में जन्में अवतारों में से एक अवतार थे। जिन्होंने राधा रानी की भक्ति करने को बढ़ावा दिया। उनका कहना था कि ‘‘श्रीराधा रानी की भक्ति करो, जिससे श्रीकृष्ण का प्रेम स्वयं मिल जायेगा‘‘
श्री हित हरिवंश जी का जीवन
श्री हित हरिवंश महाप्रभु, जिन्हें ठाकुर जी की बंसी का रूप कहा गया है। इनका जन्म वैशाख शुक्ल की एकादशी के दिन विक्रम संवत् 1530 में मथुरा के निकट ‘बाद ग्राम में हुआ था। वहीं पर उनका नाम हित हरिवंश रखा गया। हरिवंश जी के पिता देववन, (सहारनपुर उ.प्र.) के रहने वाले थे। इनके पिता का नाम श्री व्यास मिश्र था, जोकि एक गोड़ ब्राहमण थे और उनकी माता का नाम तारा रानी था। श्री व्यास मिश्र जी को तत्कालीन राजा ने अपने दरबार में ज्योतिषी रख लिया और उनको चार हजार की मनसबदारी अर्थात (अधिकारी पद) दे अपने दरबार में सम्मानित किया।
भगवान श्री नवरंगी लाल स्थापना
श्री हित हरिवंश जी ने अपने बाल्यकाल में अद्भुत लीलाऐं की, जिन्हें देख देवबंद के निवासी उनके प्रति गहन आस्था रखने लगे। हरिवंश जी अपनी शैशवावस्था में ही राधा जी का नाम सुनकर आनंदित हो जाते थे। एक बार श्रीराधा रानी ने हरिवंश जी को उनकी बाल्यावस्था में दर्शन दें, उन्हें गुरू मंत्र दिया और उनको हित की उपाधि भी दी। जिसके बाद हरिवंश जी, हित हरिवंश कहे जाने लगे। जब हरिवंश जी अपने पिता के बगीचे में खेल रहे थे, तब उनकी गेंद बगीचे के बहुत गहरे कुएं में जाकर गिर गयी।
जिसे निकालने के लिए हरिवंश जी कुएं में कूद गये और गेंद के स्थान पर एक त्रिभंगाकार स्वरूप को लेकर बाहर आये। जो बेहद सुन्दर था और उस त्रिभंगाकार विग्रह का नाम हित हरिवंश जी ने ठा. नवरंगीलाल रख दिया। जिनकी स्थापना हरिवंश जी ने देवबंद नामक स्थान पर एक नवनिर्मित मन्दिर का निर्माण कर करायी और उनके वाम भाग में श्रीराधा नाम की गादी स्थापित की।
हरिवंश जी और उनका वैवाहिक जीवन
हरिवंश जी द्वारा ठा. नवरंगीलाल जी की स्थापना करने के पश्चात उनका अत्यधिक समय उनकी सेवा पूजा करने और उनकी भक्ति का प्रसार करने में व्यतीत होता रहा। कुछ समय पश्चात हरिवंश जी का पारिग्रहण संस्कार करा दिया गया। इसी दौरान उनके पिता श्री व्यास मिश्र जी का देहान्त हो गया। श्री हित जी के पिता के देहान्तोपरान्त पृथ्वीपति जी ने हरिवंश जी को उनके पिता का स्थान देना चाहा, किन्तु श्री हित जी ने संसार के इस मोह का त्याग कर दिया और अपना सम्पूर्ण ध्यान नित्यबिहार उपासना को प्रगट करने में लगा दिया।
श्री किशोरी जी का हित जी को पुनः स्वपन
श्री हित जी के विवाह के बाद उनके तीन पुत्र श्री वनचन्द्र, श्री कृष्णचन्द्र, श्री गोपीनाथ और एक कन्या साहिबदे हुई। जिनका उन्होंने समय के साथ विवाह किया और अपनी 32 वर्ष की आयु में श्रीराधा जी की आज्ञा पाकर वृन्दावन वास के लिए चल दिये। चलते चलते जब वह थक गये, तो देवबन्द से कुछ दूरी पर चिड़थावल ग्राम में उन्होंने सुबह होने तक विश्राम किया।
वहीं चिड़थावल ग्राम में उन्हें श्रीराधा जी के पुनः दर्शन हुए और श्री किशोरी जी ने उन्हें पुनः आज्ञा दी कि वे यहीं चिड़थावल ग्राम में आत्मदेव नाम के ब्राहमण से जाकर मिलें। ब्राहमण की दो बेटियों है जिनसे जाकर तुम विवाह करो और ब्राहमण के पास हमारा जो त्रिभंग स्वरूप का विग्रह है, तुम उसे ब्राहमण से लो और वृन्दावन आकर उस विग्रह की सेवा पूजा करो।
भगवान शिव द्वारा मनवांछित वर
पुराणों में कहते है कि ग्राम चिड़थावल में आत्मदेव नाम के ब्राहमण निवास करते थे। आत्मदेव जी व उनके पूर्वज भगवान विष्णु के भक्त थे। एक बार उन्हें भगवान शिव के दर्शन करने की इच्छा हुई। जिस पर आत्मदेव ब्राहमण ने कठोर तप किया और उनके तप से खुश होकर भगवान शिव ने उनसे वरदान मांगने को कहा। लेकिन आत्मदेव जी तो सिर्फ भगवान शिव के दर्शन करना चाहते थे। जब भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिये तो उनकी इच्छा पूर्ण हो गयी। भगवान शिव ने दर्शन देने के बाद आत्मदेव जी से वांछित वर माँगने को कहा।
राधा वल्लभ विग्रह का प्राकटय
आत्मदेव जी ने भगवान शिव से कहा कि उन्हें और उनके पूर्वजों को तो कुछ भी मांगना आता ही नहीं, मैं तो मात्र आपके दर्शन की इच्छा रखता था, जो पूर्ण हो गयी। लेकिन भोलेनाथ तो भोलेनाथ है, उन्होंने ब्राहमण आत्मदेव जी पर वर माँगने के लिए जोर दिया, भगवान शिव के आत्मदेव जी पर वांछित वर के लिए जोर डालने पर उन्होंने भगवान शिव से कहा कि इस सम्पूर्ण ब्रहम्मांड में आपको जो कुछ भी सबसे अधिक प्रिय हो, वह आप मुझे सोंप दें। उनके ऐसा कहने पर भगवान शिव ने उनसे कहा – ‘‘तथास्तु‘‘। जिसके बाद भगवान शिव ने कुछ देर सोचा और अपने प्राणों से प्रिय ठा. श्री राधावल्लभ लाल जी को आत्मदेव को सौंप दिया और उसके बाद आत्मदेव जी को ठा. श्री राधावल्लभ जी की सेवा पूजा करने की सम्पूर्ण विधि बताई।
आत्मदेव जी और हित हरिवंश जी का मिलन
भगवान शिव द्वारा आत्मदेव जी को ठा. श्री राधावल्लभ जी सौंप देने के पश्चात अनेक वर्षो तक आत्मदेव जी उनकी पूजा-अर्चना करते रहे। अनेक वर्षो के बाद जब आत्मदेव जी हित हरिवंश जी से मिले तब उन्होंने श्रीराधा जी की आज्ञा अनुसार अपनी दोनों पुत्रियों का विवाह हित हरिवंश जी के साथ कर दिया और भगवान शिव द्वारा दी गयी ठा. श्री राधावल्लभ जी की प्रतिमा को हरिवंश जी को उपहार स्वरूप दे दिया। विवाह पश्चात हित हरिवंश जी प्रभु इच्छा से इस विग्रह को अपने सपरिवार सहित वृन्दावन लेकर आये और वृन्दावन में एक ऊँची ठोर नामक स्थान पर प्रतिस्ठित कर निवास करने लगे।
‘‘राधा वल्लभ दर्शन दुर्लभ‘‘ क्यों कहा जाता है?
वृन्दावन के इस मन्दिर में ठा. राधा वल्लभ जी को एक युगल जोड़े के रूप में देखा जा सकता है और उनके इस रूप के दर्शन भी किये जा सकते है, क्योंकि राधा वल्लभ जी अलग अलग नहीं बल्कि एक ही मिश्रित रूप में मन्दिर में विराजमान है। जिस मन्दिर की स्थापना श्री हित हरिवंश जी द्वारा की गयी थी। किंवदंतियों के अनुसार ठा. श्री राधा वल्लभ जी महाराज का एक कथन लोगो में बहुत प्रचलित है, जिसे लोगो के मुख से हर पल सुना जा सकता है कि ‘‘राधा वल्लभ दर्शन दुर्लभ‘‘।
ठाकुर जी की मर्जी
पौराणिक कथाओं के अनुसार कहा गया है कि ठा. राधा वल्लभ जी उसी भक्त या व्यक्ति को दर्शन देते है, जिसकी उनमें पूर्ण श्रद्धा हो। कहते है कि राधा वल्लभ जी का मिश्रित स्वरूप उन्हीें लोंगों को दिखाई देता है, जो भक्ति की सच्ची श्रद्धा और आस्था के साथ उनके दर्शन करते है। लोगों की मान्यता है कि किसी को भी अपनी मर्जी से राधा वल्लभ जी के दर्शन नहीं हो सकतें, क्योंकि जब भगवान चाहेंगे तभी अपने भक्तों को अपने ‘‘दुर्लभ दर्शन‘‘ देंगे और यही कारण है, कि श्री राधा वल्लभ जी के भक्तों के मुख से ‘‘राधा वल्लभ दर्शन दुर्लभ‘‘ कथन को बार बार सुना जा सकता है।
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