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दोस्तों चलिए आज हम आपको एक और नये सफर पर लेकर चलते हैं, जिसमें हम आपको गोवर्धन पर्वत के बारे में जानकारी देने का प्रयास करेंगे। जिसे गिर्राज जी, दान घाटी आदि नामों से भी जानते है।
गिर्राज जी मंदिर गोर्वधन पर्वत उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में सम्मिलित है। जब कृष्ण काल में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अपनी अंगुली पर गोवर्धन पर्वत उठाकर मथुरा के ब्रजवासियों को इन्द्र के अत्यधिक क्रोध से बचाया। तबसे यह ‘गोवर्धन पर्वत‘ के नाम से प्रसिद्ध है। गोर्वधन और इसके आसपास के क्षेत्र को ब्रजभूमि भी कहते है, क्योंकि यह भगवान श्रीकृष्ण की लीलास्थली है।
भक्तजन द्वारा गोर्वधन पर्वत को ‘गिर्राज जी‘ भी कहा जाता है। क्योंकि गोर्वधन पर्वत – कथाओं में वर्णित है कि यहाँ पर श्रीकृष्ण राधा रानी, अपने ज्येष्ठ भाई बलराम और अपने सखाओं द्वारा लीलाऐं किया करते थे। पूर्व में मथुरा 5 भागों में बटा हुआ था, जिसमें गोर्वधन एक है। दीपावली के अगले दिन गोवर्धन की पूजा यहाँ पर बड़े जोर शोर से की जाती है और साथ ही प्रत्येक पूर्णिमा के दिन यहाँ पर गोवर्धन पर्वत की पूजा अर्चना कर परिक्रमा की जाती है।
क्यों गोवर्धन पूजा का महत्व है?
कहते है कि हर साल दीपावली के अगले दिन पड़वा को गोवर्धन की पूजा की जाती है, क्योंकि इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी उँगली पर उठाकर गोवर्धन वासियों को इंद्र के प्रकोप से बचाया था। पौराणिक कथा कुछ इस प्रकार है कि एक बार देवराज इंद्र को सर्वशक्तिमान और श्रेष्ठ होने का अहंकार हो गया। जिसे दूर करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण द्वारा एक लीला रची गयी। जब श्रीकृष्ण ने देखा कि सभी बृजवासियों द्वारा किसी विशेष पूजा की तैयारी की जा रही है और स्वादिष्ट व्यंजन भी बनाये जा रहे है।
तो उन्होंने माता यशोदा से पूछा कि यह सब तैयारी आप सभी क्यों कर रहे है, तो इस पर माता यशोदा ने कहा कि यह सब तैयारी देवराज इंद्र की पूजा करने के लिए की जा रही है। श्रीकृष्ण ने पूछा कि हम सब देवराज इंद्र की पूजा क्यों करते है। माता यशोदा ने श्रीकृष्ण को बताया कि इंद्र देव हमें वर्षा देते है। जिसके पानी से हमारी खेती होती है और गायों के लिए चारा उत्पन्न होता है। इसलिए हमारे द्वारा श्रीकृष्ण की पूजा की जाती है।
गोवर्धन वासियों पर इंद्र का प्रकोप
जब श्रीकृष्ण को देवराज इंद्र की पूजा का पता चला, तो उन्होंने गोवर्धन वासियों से कहा कि आप सभी को अन्न और गायों को चारा गोवर्धन पर्वत से मिलता है। फिर आप सभी देवराज इंद्र की पूजा क्यों करतें हैं, आप सभी लोगों को गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए। श्रीकृष्ण की इस बात से सहमत सभी गोवर्धन वासियों ने पर्वत की पूजा की जिससे इंद्र देव अत्यधिक क्रोध में आ गये और उन्होंने क्रोध में आकर मूसलाधार बारिश शूरू कर दी। बारिश के कारण पूरे गोवर्धन पर्वत पर बाढ़ आने लगी, जिससे सभी गोवर्धन वासी और गाय भयभीत होने लगे।
श्रीकृष्ण ने यह सब देव सभी गोवर्धन वासियों की रक्षा हेतु अपनी युवावस्था में गोवर्धन पर्वत को अपनी उँगलियों पर उठा लिया और सात दिवस तक उसे अपनी छोटी उँगली पर उठायें रखा अर्थात जब तक वर्षा बन्द नहीं हुई। जिसे देख इंद्र देव परेशान हो गये।
देवराज इंद्र द्वारा श्रीकृष्ण से माफी
जब देवराज इंद्र ने यह सब देखा तो उन्हें श्रीकृष्ण की शक्ति का अहसास हुआ। जिस कारण देवराज इंद्र ब्रह्मा जी से जाकर मिले और उनसे श्रीकृष्ण के बारे में पूछा। तब ब्रह्मा जी ने इंद्र देव को बताया कि श्रीकृष्ण साक्षात भगवान विष्णु के अंश है। ब्रह्मा जी ने इंद्र देव से कहा कि नारायण ही श्रीकृष्ण है। जब देवराज इंद्र श्रीकृष्ण स्वरूप से परिचित हुए, तब उनका मन गिलानी से भर गया। जिसके पश्चात देवराज इंद्र ने श्रीकृष्ण की पूजा अर्चना कर उनसे माफी माँगी। तब श्रीकृष्ण ने इंद्र देव को माफ कर उन्हें पुनः देव लोक जाने को कहा। बस तभी से इस दिन को गोवर्धन पूजा के नाम से जाना जाने लगा।
गिर्राज मन्दिर को दान घाटी क्यों बोला जाता है?
बात आज से बहुत अधिक वर्ष पूर्व सन् 1957 की है, जब गिर्राज जी मन्दिर की स्थापना हुई थी। मन्दिर के पुजारियों द्वारा ज्ञात होता है, कि जिस समय मन्दिर की स्थापना हुई तब वहाँ उस स्थान के आस पास सुनसान नजारा था। उस समय वहाँ न तो बिजली पानी था और न ही कोई सुविधा उपलब्ध थी। इन सबके बीच गिर्राज जी मन्दिर में रोशनी की व्यवस्था एक लालटेन के माध्यम से की जाती थी।
“गिर्राज जी” के भक्तो ने दिया गिर्राज धरण नाम
हम आपको बता दें कि इतिहास के पन्नों को पलटनें पर पता चलता हैं, कि भगवान श्री कृष्ण के मामा कंस को माखन का ‘लगान‘ चुकाना पड़ता था। जिसके लिए ब्रज की गोपियों को गोवर्धन के रास्तें से होकर ही मथुरा जाना पड़ता था। यही वह मार्ग है, जहाँ पर भगवान श्री कृष्ण और उनके सखा अपने बाल रूप में गोपियों से माखन का दान लिया करते थे। जब भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों के प्रेम के अधीन हो अपने भक्तों से दान माँग सकते हैं, तो दान माँगने के ऐसे दृश्य का वर्णन भला कैसे ही किसी भक्त या प्राणी के द्वारा किया जा सकता है।
भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं का वर्णन हमारे ग्रन्थ और इतिहास में मिलता है, कि उनकी दिव्य मनोहरी लीलाऐं जिसमें वो गोपियों का माखन चुराते नजर आते हैं, माखन के लिए गोपियों से दान माँगते नजर आते हैं और साथ ही अपने सखाओं के साथ लीला करते नजर आते हैं। भगवान श्री कृष्ण की दिव्य लीलाओं का वर्णन पौंराणिक काल के हमारे ऋषि मुनियों ने इतिहास में उल्लेख कर किया है। इसके साथ ही कवियों ने भी अपने काव्यों में इन लीलाओं का उल्लेख किया है।
भगवान की लीलाओं से ही इस स्थान को दान घाटी के नाम से जाना जाने लगा और यही कारण हैं, कि मन्दिर के गर्भग्रह में स्थापित ठा. जी को उनके भक्तों के द्वारा दान घाटी के गिर्राज धरण नाम दिया गया है।
गुजरते वक्त के साथ गिर्राज जी मन्दिर का ऐश्वर्य
पता चलता है कि मन्दिर की स्थापना के शुरूआती वर्षाें में गिर्राज जी के पास कुछ ही पोशाकें थी। फिर बीतते वक्त के साथ गिर्राज जी मन्दिर का निर्माण एक भव्य मन्दिर के रूप में सम्पन्न हुआ। जिसके बाद सन् 1998 में मन्दिर के स्तम्भ पर एक स्वर्ण कलश की स्थापना हुई और सन् 2003 में नक्काशी किये हुए चांदी के दरवाजों को लगाया गया। उन दरवाजों की नक्काशी को देख आप सभी की नजर ठहर जायेंगी। इसके लगभग दो वर्षों पश्चात सन् 2005 में गिर्राज जी महाराज पर 51 किलो का एक छत्र चढ़ाया गया।
छत्र चढ़ाने के कुछ वर्ष पश्चात सन् 2013 में भगवान गिर्राज जी महाराज को एक चांदी के सिंहासन पर पधराया गया, जिसके बाद ठा. श्री गिर्राज जी महाराज अपने भक्तों को उस सिंहासन पर बैठ वर्तमान में दर्शन दें रहे हैं।
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